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दो दशक यानी करीब बीस साल बीत गए. इन दो दशकों में हर साल जब भी गर्मी आती है, बुखार से तपते बच्चों की मय्यतों के उठने का सिलसिला शुरू हो जाता है. बीस साल हो गए. मगर आज भी ना ये मातमी सिलसिला रुका है और ना ही इस बीमारी का इलाज मिला. इलाज मिल सकता था. बशर्ते गर्मी खत्म होने के बाद या गर्मी शुरू होने से पहले सरकार जागी रहती. पर हम सबको तो आदत हो चुकी है. जब तक मौत झकझोरती नहीं हम जागते कहां हैं? बिहार के मुजफ्फरपुर में बच्चों की मौत की कहानी बस यही है.

किसी को तेज़ बुखार था. किसी को बुखार के साथ सिर दर्द. किसी को बदन दर्द. किसी को सांस लेने में तकलीफ. सब बच्चे थे. बच्चों जैसे थे. उन्हें तो ये तक पता नहीं था कि सांसें जिंदगी के लिए जरूरी होती है. और कई बार सांसें उधार में भी मिलती हैं. सांसों की उतार-चढ़ाव तक से अनजान थे सब. बच्चों को छोड़िए उनके साथ आए बड़ों तक को नहीं पता था कि जहां वो जिंदगी की आस में अपने बच्चों को लाए हैं वो तो खुद उधार की सांसों पर जी रहा है. मौत के बाद हर सोगवार घर से अलग-अलग कहानियां आ रही हैं. पर दर्द सबका एक है. सवाल भी सबका एक. सवाल ये कि कब्रों में पड़ी 135 से ज्यादा बच्चों की मय्यतों का गुनहगार कौन है?

बंद कर देना चाहिए ऐसे अस्पतालों को जिन्हें वक्त पर सरकार जरूरी सुविधा मुहैया ना करा सके. सजा देनी चाहिए उन बाबू, अफसरों और मंत्रियों को जो अस्पताल के हिस्से के पैसे तब तक जेब से नहीं निकालते जब तक सांसों की गिनती ना शुरू हो जाए. और जवाब मांगना चाहिए उन सरकारों से जो वादे और दावे तो तमाम करते हैं पर सांसों के लिए जरूरी इलाज और दवाएं तक वक्त पर मुहैया नहीं कर पाते. हैरानी से ज्यादा हैरत हो रही है इन सब पर.

कहां हैं वो. जिनके हुक्म से. खुदा की बख्शी हुई सांसें भी सीनों में घोंट दी जाती है. आके देखें कि जिस जगह को ज़िन्दगी बचा लेने के लिए बनाया गया था. वो हर घडी शहादतें गिन रहा है. ये ज़मीन के भगवानों का कौन सा रूप है कि न जिसमें दया है न धर्म है. प्यार है न एतबार है. इनकी जीने की चाह कितनों को बे-मौत मार डालती है. ये वो हैं जिन्हें बच्चों की मौत के सैकड़े से कहीं ज्यादा रोहित शर्मा के सैकड़े में दिलचस्पी रहती है. तभी तो मरते बच्चों को बचाने के लिए हो रही मीटिंग में भी स्वास्थ्य मंत्री की नज़र भारत-पाक मैच के स्कोर पर थी.

आज उस अस्पताल के साए में खड़े होकर लगता है कि अब शायद ही ऐसा कोई शख्स बचा है जिसके पास थोड़ी सी भी ज़मीर की ऑक्सीजन बची है. क्या कीजिएगा हुजूर. जब सांसें ही कातिल बन जाएं तो फिर रोना कैसा? फिर भी आप रो लीजिए. क्योंकि आप खुशनसीब हैं. रो सकते हैं. पर उन मासूम किलकारियों का क्या जिनकी हिचकियां तक घुट कर रह गईं और उखड़ती सांसों ने उन्हें रोने तक की मोहलत नहीं दी. वो सारे मासूम ही तो थे. जिन्हें य़े तक पता नहीं था कि सरकार और प्रशासन की बेशर्मी के चलते आने वाली उनकी चमकदार ज़िंदगी को चमकी बुखार की नज़र लग जाएगी.

नोटबंदी से लेकर जीएसटी, मेक इन इंडिया से लेकर इनकम टैक्स रिटर्न तक से खजाना भरने का दावा किया जाता है. मगर खजाने से इतने पैसे भी नहीं निकले कि बच्चों की तपती सांसें खरीद सकें. अगर सही इलाज सही वक्त पर मिलता तो बच्चों को उनके हिस्से की सांसों मिल जातीं. डाक्टर, दवा, इलाज मुहैया होता तो किलकारियां फिर से गूंज उठतीं. पर ऐसा हुआ ही नहीं.

जो मर चुके वो खुशनसीब लगते हैं. जो जिंदा हैं वो मरने की जद्दो-जेहद में मशगूल लगते हैं. सब कुछ बाज़ार बन चुका है. ज़िन्दगी का सारा तमाशा सिर्फ पैसों तक है. पैसा हज़म, खेल ख़तम. क्योंकि यहां उधार पर सांसें नहीं मिलतीं. मिलती हैं तो सिर्फ मौत. फिर वो मौत किलकारियों की ही क्यों ना हो. तो अब रो लीजिए जितना रोना है. कोस लीजिए हरेक को जितना कोसना है. राजनीति भी कर लीजिए अपने-अपने हिसाब से... पर उन किलकारियों की मातमी सिसकियों को अपने कानों से मत निकालिएगा.


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