नई दिल्ली: 11 जुलाई 2006 को मुम्बई के पश्चिमी उपनगरों को जाने वाली सात लोकल ट्रेन्स के फर्स्ट क्लास डब्बों में, 11 मिनट्स के भीतर ज़बर्दस्त धमाके हुए, जिनमें 187 लोग हलाक हो गए और 829 घायल हुए. क़रीब 14 साल हो गए हैं और केस अपने अंजाम को पहुंचता नज़र नहीं आता- पांच साल पहले मुम्बई की एक स्पेशल कोर्ट ने जिन 12 लोगों को दोषी ठहराया था, वो न सिर्फ आज भी अपनी बेगुनाही पर ज़ोर दे रहे हैं, बल्कि उन्होंने आधिकारिक और कोर्ट दस्तावेज़ भी पेश किए हैं, जो सरकारी जांच एजेंसियों ने ख़ुद अपने बचाव में दाख़िल किए थे. धमाकों के लिए वो इंडियन मुजाहिदीन को दोष देते हैं.

ये 12 उन 13 लोगों में हैं, जिन्हें हमले के फौरन बाद गिरफ्तार किया गया था और जिन पर भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की, हत्या, आपराधिक साज़िश, महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण क़ानून (मकोका) 1999 और ग़ैर-कानूनी गतिविधियां (रोकथाम) क़ानून (यूएपीए) 1967 से जुड़ी धाराओं के तहत आरोप दर्ज किए गए थे. अभियोजन की दलील थी कि ये साज़िश पाकिस्तान स्थित लशकर-ए-तैयबा (एलईटी) ने रची थी, जिस पर प्रतिबंधित स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) से जुड़े लोगों की मदद से अमल किया गया. 

नौ साल बाद सितंबर 2015 में, मुम्बई की एक विशेष अदालत ने 12 लोगों को धमाकों का दोषी क़रार दिया. 1839 पन्नों के लंबे अपने फैसले में- सार्वजानिक अभियोक्ता से सहमत होते हुए, जिसने उन्हें ‘मौत के सौदागर’ कहा था- अदालत ने इनमें से पांच दोषियों को सज़ा-ए-मौत और बाक़ी को उम्रक़ैद की सज़ा सुनाई. एक अभियुक्त अब्दुल वाहिद दीन मोहम्मद शेख़ को बरी कर दिया गया.

अभी तक उम्रक़ैद की सज़ा पाए चार दोषी, एडवोकेट इशरत ख़ान के ज़रिए अपने दोषी ठहराए जाने के फैसले के खिलाफ मुम्बई हाईकोर्ट में अपील कर चुके हैं. कुछ अभियुक्तों की सज़ा-ए-मौत की पुष्टि के लिए, हाईकोर्ट में ज़रूरी सुनवाई अभी शुरू होनी है. ट्रायल कोर्ट्स द्वारा दी गई सज़ा-ए-मौत की, संबंधित हाईकोर्ट से पुष्टि होनी ज़रूरी होती है, जिसके लिए दण्ड प्रक्रिया संहिता (सीआरपीसी) की धारा 366 के तहत कार्यवाही करनी होती है.


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